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शिक्षा की सार्थकता ज्ञान के अर्जन में नहीं, वैज्ञानिक स्वाभाव के सृजन में हैं.शिक्षा का सम्बन्ध जीवन की समग्रता से हैं. अध्यापन एक कला हैं.वास्तव में शिक्षण एक आध्यात्मिक प्रक्रिया हैं, इस में बहुत कुछ शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रतिफलन हैं. NCF2005 मे स्पष्ट रूप से कहा गया था कि बच्चों के स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से जोड़ा जाना चाहिए, यह सिद्धांत किताबी ज्ञान की उस विरासत के विपरीत हैं जिस के प्रभाववश हमारी व्यवस्था आजतक विद्यालय और घर के बीच अंतराल बनाये हुए हैं. हमें बच्चों को कल्पनाशील गतिविधियों और सवालों की मदद से सीखने और सीखने के दौरान अपने अनुभवों पर विचार करने का अवसर देना चाहिए. सर्जन और पहल को विकसित करने के लिए यह ज़रूरी हैं कि हम बच्चों को सीखने की प्रक्रिया मे पूरा भागीदार माने और बनायें, उन्हे ज्ञान की खुराक का ग्राहक मानना छोड़ दें. वर्तमान शिक्षा मे नैतिकता और गुणवत्ता का आभाव एवं जीवन मूल्यों का ह्रास प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता हैं. शिक्षा एक सामाजिक उद्यम हैं और शिक्षण संस्थान समग्र समाज के क्रिया क्लापों की प्रयोगशाला हैं, अभ्यास क्षेत्र हैं. अत: शिक्षा राजनैतिक और सामाजिक प्रभाव से विरत हो कर अपने अभिप्रेत की पूर्ती कैसे कर सकती हैं? आज शिक्षा से हम सामाजिक समस्याओं के निदान और विषमताओं का निराकरण चाहते हैँ. शिक्षा में समाज की अनेक अपेक्षाएं निहित हैं. शिक्षा व्यवसाय मूलक हो, सामाजिक बुरायों के प्रति चेतना जागृत करें, लोकतंत्रत्मक व्यवस्था में लोगों की राजनैतिक सूझबूझ का विकास करें. व्यक्ति में उन सब योग्यताओं का विकास करें जो व्यक्ति और समाज के हितों की रक्षा करें. आज के वैज्ञानिक युग में वैज्ञानिक उपलब्धयों और तकनीकी विकास ने जीवन के हर पहलु को प्रभावित किया हैं, हमारी आवश्यकताओं को बढ़ा दिया हैं और हमारी प्राथमिकताओं को भी बदल दिया हैं. मोबाइल, इंटरनेट और सूचना टेक्नोलॉजी ने जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया हैं. करोना संक्रमण के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई ने शिक्षा में एक विकल्प देने का प्रयास किया हैं. परन्तु इस के परिणाम तो अभी आने बाकी हैँ जो बड़े सार्थक नज़र नहीं दिखाई देते हैँ. हम सब की कामना हैं कि नई शिक्षा नीति 2020 समाज की बदली हूई और बदलती हूई ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम हो. यह हमारी अपेक्षा और प्रयास होना चाहिए. जीवन के बहुआयामी क्रिया कलापों मे, शिक्षा की समग्र भूमिका मे अध्यापक का स्थान सर्वोपरि हैं, सर्वोपरि रहेगा बशर्तेकि वह परिस्थितियों का दास ना बनकर उनका नियंता, प्रेरक और संचालक बन सके. जीवन मूल्यों के बिना शिक्षा अधूरी हैं. इस सन्दर्भ में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी ने स्पष्ट रूप में ठीक कहा हैं कि आज की शिक्षा ने हमारे बालकों और नवयुवकों को जितनी जानकारी दी हैं उतनी संवेदना नहीं दी, विज्ञानं ने जितने साधन दिए उतना मनोबल नहीं दिया. यह सब कुछ हो सकता था, यदि देशवासियों का चरित्र महान और सबाल होता, उस के अभाव में सभी जानकारी व्यर्थ सिद्ध हो रही हैं, कभी कभी खतरनाक परिणामो को भी उत्पन्न कर रही हैं.शिक्षा की सार्थकता को हमें जीवन की सार्थकता से जोड़ना हो गा और इस के लिए समस्त हितधारकों की भागीदारी को सुनिश्चित करना होगा. इस में ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का हित निहित हैं.
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